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यस्मा॒न्न जा॒तः परो॑ऽअ॒न्योऽअस्ति॒ यऽआ॑वि॒वेश॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ सꣳररा॒णस्त्रीणि॒ ज्योती॑षि सचते॒ स षो॑ड॒शी ॥३६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्मा॑त्। न। जा॒तः। परः॑। अ॒न्यः। अस्ति॑। यः। आ॒वि॒वेशेत्या॑ऽवि॒वेश॑। भुव॑नानि। विश्वा॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। स॒र॒रा॒ण इति॑ सम्ऽर॒रा॒णः। त्रीणि॑। ज्योति॑षि। स॒च॒ते॒। सः। षो॒ड॒शी ॥३६॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:36


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गृहाश्रम की इच्छा करनेवालों को ईश्वर ही की उपासना करनी चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मात्) जिस परमेश्वर से (परः) उत्तम (अन्यः) और दूसरा (न) नहीं (जातः) हुआ और (यः) जो परमात्मा (विश्वा) समस्त (भुवनानि) लोकों को (आविवेश) व्याप्त हो रहा है, (सः) वह (प्रजया) सब संसार से (संरराणः) उत्तम दाता होता हुआ (षोडशी) इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दशों इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह कलाओं के स्वामी (प्रजापतिः) संसार मात्र के स्वामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (ज्योतींषि) ज्योति अर्थात् सूर्य्य, बिजुली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थों में स्थापित करता है ॥३६॥
भावार्थभाषाः - गृहाश्रम की इच्छा करनेवाले पुरुषों को चाहिये कि जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोकों का रचने और धारण करनेवाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात् सदा ऐसा ही बना रहता है, सत्, अविनाशी, चैतन्य और आनन्दमय, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव और सब पदार्थों से अलग रहनेवाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान् परमात्मा जिस से कोई भी पदार्थ उत्तम वा जिसके समान नहीं है, उसकी उपासना करें ॥३६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ गृहाश्रममिच्छद्भ्यो जनेभ्यः परमेश्वर एवोपास्य इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(यस्मात्) परमात्मनः (न) निषेधे (जातः) प्रसिद्धः (परः) उत्तमः (अन्यः) भिन्नः (अस्ति) (यः) (आविवेश) (भुवनानि) स्थानानि (विश्वा) सर्वाणि, अत्र शेर्लुक् (प्रजापतिः) विश्वस्याध्यक्षः (प्रजया) सर्वेण संसारेण (संरराणः) सम्यग्दातृशीलः, अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०२.४.७६) इति शपः स्थाने श्लुः (त्रीणि) (ज्योतींषि) सूर्य्यविद्युदग्न्याख्यानि (सचते) सर्वेषु समवैति (सः) (षोडशी) प्रशस्ताः षोडश कला विद्यन्ते यस्मिन् सः। इच्छा प्राणः श्रद्धा पृथिव्यापोऽग्निर्वायुराकाशमिन्द्रियाणि मनोऽन्नं वीर्य्यन्तपो मन्त्रा लोको नाम चैताः कलाः प्रश्नोपनिषदि प्रतिपादिताः। अयं मन्त्रः (शत०४.४.५.६) व्याख्यातः ॥३६॥

पदार्थान्वयभाषाः - यस्मात् परोऽन्यो न जातः किंच यो विश्वा भुवनान्याविवेश, स प्रजापतिः प्रजया संरराणः षोडशी त्रीणि ज्योतींषि सचते ॥३६॥
भावार्थभाषाः - गृहाश्रममिच्छद्भिर्मनुष्यैर्यः सर्वत्राभिव्यापि सर्वेषां लोकानां स्रष्टा धर्ता दाता न्यायकारी सनातनः सच्चिदानन्दो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावः सूक्ष्मात् सूक्ष्मो महतो महान् सर्वशक्तिमान् परमात्माऽस्ति, यस्मात् कश्चिदपि पदार्थ उत्तमः समो वा नास्ति, स एवोपास्यः ॥३६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - गृहस्थाश्रमी लोकांनी सर्वत्र व्याप्त, लोकांची (गोलांची) निर्मिती करणारा, त्यांना धारण करणारा, दाता, न्यायी, सनातन, सत्, अविनाशी, चैतन्यमय, आनंदमय, नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव, सर्व पदार्थांपासून वेगळा, सूक्ष्मात सूक्ष्म, स्थूलामध्ये स्थूल, सर्व शक्तिमान, असा जो परमेश्वर, त्याचीच उपासना करावी कारण त्याच्यापेक्षा कोणताही पदार्थ उत्तम नाही किंवा त्याच्यासारखा नाही.